अफग़ानिस्तान में सोवियत संघ और मुजाहिदीन लड़ाकों के बीच 9 साल तक लड़े गए युद्ध का इतिहास |
अफग़ानिस्तान में सोवियत संघ और इसके द्वारा अफग़ानिस्तान की समर्थित सरकार और मुजाहिदीन लड़ाकों के बीच दिसंबर 1979 से फरवरी 1989 के बीच एक लंबा युद्ध लड़ा गया था जिसे Soviet Afghan War या अफग़ानिस्तान में सोवियत युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। इस युद्ध के अंत में सोवियत संघ को पीछे हटना पड़ा था।
सोवियत अफगान युद्ध क्यों हुआ था?
सोवियत संघ आज के 15 देशों से मिलकर बना एक संयुक्त देश था। इसे भूत-पूर्व रूस भी कहा जाता है। यह देश बहुत विशाल था और अफग़ानिस्तान लंबे समय से इसका पड़ोसी देश था।
लंबे समय तक एक शक्तिशाली पड़ोसी होने के नाते सोवियत संघ अफगानिस्तान को हर तरह की सहायता देता आ रहा था। इस वजह से अप्रैल 1978 में अफगानिस्तान में सोवियत संघ की समर्थित कम्युनिस्ट सरकार का शासन हो गया। नई सरकार ने अफगानिस्तान को Democratic Republic of Afghanistan नाम दे दिया।
लेकिन अफगानिस्तान की ज्यादातर जनता ने नई कम्युनिस्ट सरकार को पसंद नहीं किया। क्योंकि इसके बहुत सारे कानून उनके इस्लाम धर्म के खिलाफ थे। उन्होंने नई सरकार के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया। विद्रोही खुद को मुजाहिदीन कहते थे।
अफगानिस्तान में सितंबर 1989 में हालात तब और बिगड़ गए जब अफगान नेता हफीझुल्लाह अमीन (Hafizullah Amin) ने वहां के राष्ट्रपति को मारकर कम्युनिस्ट सरकार पर अपना कब्ज़ा जमा लिया।
सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में कब हस्तक्षेप किया?
सोवियत संघ के नेताओं को पता था कि नए राष्ट्रपति हफीझुल्लाह आमीन के अमेरिका के साथ संपर्क हैं। दिसंबर 1989 में सोवियत संघ ने अफग़ानिस्तान पर हमला कर दिया। उन्होंने राष्ट्रपति आमीन का कत्ल कर दिया और उसकी जगह बबरक कारमल (Babrak Karmal) को राष्ट्रपति बना दिया।
इसके बाद अगले सालों में सोवियत सेना मुजाहिदीन लड़ाकों के साथ युद्ध करती रही। सोवियत सैनिकों को लड़ने में काफी ज्यादा समस्या आ रही थी, क्योंकि एक तो अफग़ानिस्तान का मौसम उनके देश से बिल्कुल अलग था और दूसरा उनके हथियार भी यहां के मुताबिक नहीं बने हुए थे। दूसरी तरफ मुजाहिदीन लड़ाके मज़हबी भावना से प्रेरित थे। वह काफी तेज़-तरार थे और हमला करके छुपने में काफी ज्यादा माहिर थे।
युद्ध का अंत
भले ही इस युद्ध में सोवियत संघ को थोड़ी सी सफलता मिली। लेकिन यह युद्ध दुनिया में उनके लिए शर्मिंदगी का कारण बनता जा रहा था, क्योंकि उनकी सेना लंबे समय तक युद्ध करते रहने के बावजूद भी जीत नहीं पा रही थी। इससे उनकी सेना की अजय रहने की छवि को नुकसान पहुंचा।
इसके सिवा सोवियत संघ पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता जा रहा था। जब मिखाइल गोर्बाचेव (Mikhail Gorbachev) सोवियत संघ के नए लीडर बने तो उन्होंने युद्ध को जल्दी से खत्म करने की ठान ली। पहले तो उन्होंने सोवियत सेना को बड़े हमले करके युद्ध जल्दी खत्म करने को कहा। लेकिन 1988 में उन्हें लगा के युद्ध की वजह से उनकी सेना और उनके देश की आर्थिकता को नुकसान हो रहा है। उन्होंने एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए और फरवरी 1999 में सोवियत सेना अफग़ानिस्तान से चली गई।
सोवियत अफगान युद्ध से नुकसान
युद्ध की वजह से जहां सोवियत संघ की अंतर्राष्ट्रीय छवि पर बट्टा लगा तो वहीं इसके 13 हज़ार सैनिक इसमें में शहीद हो गए थे। आर्थिक तौर पर जो नुकसान हुआ वो अलग।
लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान तो अफग़ानिस्तान का हुआ था, जहां यह युद्ध लड़ा गया था। युद्ध की वजह से अफग़ानिस्तान में लगभग 10 लाख लोग मारे गए, जिनमें से ज्यादातर आम नागरिक थे। लगभग 50 लाख लोग अफग़ानिस्तान छोड़ कर पाकिस्तान और इराक चले गए।
युद्ध ने अफग़ानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर को तहस-नहस करके रख दिया और यह दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक बन गया।