फिल्म पद्मावती के सेट पर बवाल। कौन है रानी पद्मावती ? जानें पूरी असली कहानी।
रानी पद्मावती
की वो कहानी जो ह्रदय को झंकृत कर देगी।।
महारानी पद्मिनी संसार की अद्वितीय सुंदरी थीं, देश देशांतर में उनकी सुंदरता की कथाएं प्रिसिद्ध थी, जब अलाउद्दीन खिलजी ने यह बात सुनी तो सत्ता के मद में उसकी हवस जाग उठी और रानी पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौड़ पर भारी सेना के साथ हमला बोल दिया, युद्ध महीनों चला पर राजपूतों के दुर्ग में पांव धरने में वह सफल न हुआ।
इससे क्षुब्ध ख़िलजी ने कपट भरी चाल रची कि यदि राजा पद्मिनी का मुख भर दिखा दें तो वह दिल्ली लौट जाएगा।
……… रतन सिंह और राजपूतों का खून खौल उठा, परन्तु स्वयं के कारण अनावश्यक रक्तपात न हो, आखिर विशाल सेना के सामने छोटी सी राजपूत सेना कब तक जूझती, चित्तौड़ की प्रजा की बर्बादी रोकने के लिए महारानी बोलीं कि उसे मेरा प्रतिबिम्ब दिखाने की अनुमति दी जा सकती है। कुटिल ख़िलजी इस बात पर मान गया।
सुल्तान का राजसी आतिथ्य हुआ। रानी को आईने के सामने बिठाया गया। आईने से खिड़की के ज़रिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीं से अलाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया।
सरोवर के जल में रानी के मुख की छाया मात्र देखकर ख़िलजी की हवस ज्वाला बन गई, और उसने किसी भी कीमत पर पद्मिनी के हरण का निश्चय कर लिया। मलेच्छों को अपनी स्त्रियां दिखाएं यह राजपूती शान के खिलाफ है, असल में प्रतिबिम्ब भी एक दासी का ही दिखाया गया था।
दुर्ग से लौटते समय ख़िलजी और उसकी तैयार सेना ने आक्रमण कर दिया और रतन सिंह को धोखे से बन्दी बना लिया। अलाउद्दीन ने पद्मिनी को पाने की कीमत पर ही राजा को छोड़ने की शर्त रखी।
राजपूत खेमा भड़क उठा, पर पद्मिनी के चाचा गोरा और भाई बादल ने गहरा षड्यंत्र रचा, शर्त स्वीकार ली गई कि आपके साथ जाने से पूर्व रानी राजा के दर्शन करेंगी, और सौइयों पालकियाँ सजाकर ख़िलजी के खेमे में पहुंचीं।
पर पालकियों में राजपूत वीर बैठ गए और कहार भी सैनिकों को बनाया गया, पद्मिनी की पालकी में बैठा सुन्दर किशोर बादल।
जब पालकी जांचने के लिए पर्दा उठाया गया तो बादल को कोई पहचान न सका। थोड़ी ही देर में म्यानों से तलवारें निकल गईं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस अकस्मात आक्रमण से सुल्तान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे। रतन सिंह छुड़ा लिए गए। पर युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए गोरा मारा गया। असल में सुल्तान को भी रानी पद्मिनी का नहीं बल्कि एक दासी का प्रतिबिंब दिखाया गया था।
ख़िलजी यह घाव भूला नहीं और कुछ महीनों बाद लाखों की सेना के साथ उसने आक्रमण कर दिया। दुर्ग की घेराबंदी से खाद्य की आपूर्ति रोक दी। आखिर उसके छ:माह से ज़्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण क़िले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर हज़ारों राजपूत सैनिक क़िले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति ख़िलज़ी की लाखों की सेना पर टूट पड़े, भयंकर युद्ध हुआ पर कई गुणी सेना के सामने आखिर छोटी सी सेना कब तक टिकती, महाराणा और किशोर बादल समेत सब मारे गए।
यह खबर किले में पहुंची तो ख़िलजी की बन्दी बनने की अपेक्षा राजपूती आन बान शान के लिए महारानी ने जौहर का निश्चय किया। जौहर के लिए विशाल चिता का निर्माण किया गया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हज़ारों राजपूत रमणियाँ जौहर चिता में प्रवेश कर गईं।
किले के बच्चे और बूढ़े भी चिता में कूद पड़े। थोड़ी ही देर में देवदुर्लभ रूपसौंदर्य अग्नि की लपटों में दहककर क्षत्रिय कीर्ति का अंगारा बनकर चमक उठा । जौहर की ज्वाला की लपटें देख अलाउद्दीन ख़िलज़ी के होश उड़ गए और धर्मकीर्ति की ध्वजा चतुर्दिक फहर गई। यह कहानी इसी रूप में आजतक मेरी स्मृतियों को झंकृत करती रही है।
यह संक्षेप में पद्मिनी के बलिदान की कहानी है, जिसे विकृत करने का अधिकार किसी को नहीं है, आज भी चित्तौड़ के दुर्ग से उन रानियों की चीखें सुनाई देती हैं पर अपनी आत्मा बेचने वाले और माँ बहनों की इज्जत बेचने वाले बॉलीवुड को वह चीखें सुनाई नहीं देंगी क्योंकि पैसे की खनक से कान ही नहीं बन्द होते, आत्मसम्मान भी मर जाता है, स्वाभिमान भी सो जाता है।
धर्मबन्धुओं यह आपत्तिकाल है, आज अगर इन जानवरों का विरोध नहीं किया तो कल ये माता सीता को रावण के साथ सुखी बताएंगे और राम को आततायी आक्रमणकारी।
धर्मबंधुओं यह राजपूतों पर नहीं, सारे भारत पर हमला है,
मतृशक्ति का अपमान है।
कुलगौरव के लिए जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हुईं रानी पद्मिनी की कीर्ति गाथ अमर है और सदियों तक गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। ऐसे पूर्वजों को हम नमन करते हैं।