एमएफ हुसेन। :- माधुरी के ऐसे दीवाने कि एक ही फ़िल्म को 67 बार देखी और माधुरी को लेके फ़िल्म भी बनायीं।

हुसेन साहब दिलबाज थे। वे दिल की सुनते थे। दिल के बताए रास्ते पर चलते थे। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि वे मरने से पहले अपने देश की मिट्टी को चूमें। लेकिन उनके दिल ने धोखा दे दिया। अब वे हमारे बीच नहीं हैं। वे आधुनिक कला की ऐसी शख्सियत थे जिसने दुनिया के कला नक्शे में हिंदुस्तान को उभारा। उन्होंने भारतीय आधुनिक कला को सही मायने दिये। उनसे पहले आधुनिक कला के नाम पर पश्चिम की अकादमिक शैली की नकल थी या फिर बंगाल स्कूल के प्रयोग।
विवादों का साया

हुसेन उन कम कलाकारों में से थे जो जीते जी लेजंड बन चुके थे। 95 की उम्र में भी उनकी सक्रियता और ऊर्जा से हर किसी को हैरत होती थी। हालांकि, उनकी कला-यात्रा में विवादों के कई पड़ाव भी रहे। उनकी हिंदू देवी देवताओं पर आधारित पेंटिंग्स ‘रेप ऑफ इंडिया’, ‘मदर इंडिया’, देवी सरस्वती और दुर्गा पर दक्षिणपंथियों के निशाने पर थीं। उनके कला-सत्य को सतही समझकर उन पर हमला बोला गया। उनके घर को निशाना बनाया गया। उन्हें मारने की धमकी दी गई। इसके बाद भी वे जिंदादिल बने रहे। निर्वासन ने जरूर उन्हें तोड़ा। उनके मौन ने भी विवाद पैदा किये। अपने इस मौन को हिन्दी में लिखी गई आत्मकथा ‘एम एफ हुसेन की कहानी अपनी जुबानी’ में उन्होंने बताया है। हिंदू कठमुल्लावादियों के चलते उन्हें देश बाहर होकर कतर की नागरिकता भी स्वीकारनी पड़ी, लेकिन उनका दिल हिंदुस्तान के लिए ही धड़कता था। वे भारत लौटना चाहते थे। लेकिन कुछ कलाकर्मियों और लेखकों के अलावा किसी और ने इसके लिए प्रयास नहीं किया। सरकार ने भी कोई पहल नहीं की। यह और बात है कि उनकी मृत्यु के बाद ठाकरे से लेकर प्रधानमंत्री तक आंसू बहा रहे हैं।
मकबूल की कहानी
मकबूल फिदा हुसेन संघर्षों के बीच पैदा हुए। जब वे डेढ़ वर्ष के थे, तब उनकी मां जेनब मर गईं। पत्नी की मौत के बाद उनके पिता फिदा ने दूसरी शादी कर ली और इंदौर रहने आ गए। यहीं उनकी पढ़ाई हुई। बीसवें वर्ष में हुसेन ने मुबंई का रास्ता पकड़ा। मुबंई में उन्होंने जेजे स्कूल आफ आर्ट्स में दाखिला लिया। 1941 में उन्होंने शादी कर ली। परिवार चलाने के लिए वे सिनेमा की होर्डिंग्स बनाने लगे। उस वक्त एक फुट कैनवास की पेंटिंग्स के पांच-छ:आने ही मिलते थे। बमुश्किल कुछ रुपये ही वे कमा पाते थे। कई बार तो उन्हें पैसे भी नहीं मिलते थे। धन की कमी के चलते उन्होंने खिलौने की फैक्ट्री में खिलौनों की डिजाइन भी की। इस बीच वे पेंटिग्स बनाते रहे। 1947 में पहली बार बांबे आर्ट सोसायटी की वार्षिक प्रदर्शनी में उनकी पेंटिग ‘सुनहरा संसार’ प्रदर्शित हुई। इसी दौरान मशहूर चित्रकार फ्रांसिस सूजा ने जब प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप बनाया तो हुसेन उसमें शामिल हो गए। 1948 से 1950 के बीच कई कला प्रदर्शनियों में उनका काम सामने आया और इस तरह उनकी पहचान बनने लगी। 1951 उन्होंने चीन की यात्रा की। उनकी पहली एकल प्रदर्शनी 1952 में ज्यूरिख में हुई। इसके बाद से पूरे यूरोप और अमेरिका में उनका काम दिखने लगा।
शोहरत का दौर
1966 में उन्हें पद्म श्री और बाद में पद्मभूषण से नवाजा गया। इसी दौर में उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘थू दि आइज ऑफ ए पेंटर’ बनाई। इस फिल्म को बलिर्न फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया और उसे गोल्डन बियर एवार्ड भी मिला। इसके बाद उनके घोड़ो (घोड़ों की उनकी सिरीज) की तरह उनका ब्रश कभी थमा नहीं। वे देश के सबसे महंगे कलाकार बने। क्रिस्टीस की नीलामी में उनका एक कैनवास दो मिलियन डालर का बिका था। कला के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए उन्हें राष्ट्रपति ने राज्यसभा के लिए मनोनीत किया था। संसद का कार्यकाल खत्म होने के बाद उन्होंने संसद की स्मृतियों पर एक सिरीज ‘पार्लियामेंट प्रोफाइल’ बनाई थी। बॉलिवुड और खास कर माधुरी दीक्षित के प्रति उनकी दीवानगी किसी से छिपी नहीं है। उन्होंने माधुरी की फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ 67 बार देखी थी। उन्होंने माधुरी पर एक सीरीज बनाने के साथ उन्हें लेकर ‘गजगामनी’ नाम की फिल्म भी बनाई थी। फिल्म का एक-एक फ्रेम हुसेन की पेंटिग्स की ही तरह था। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म औंधे मुंह गिर गई। फिल्म के पिट जाने के बाद एक मुलाकात में उन्होंने कहा था कि जब तक उनके ‘घोडे़ दौड़ते रहेंगे’ तब तक वे नफा-नुकसान की परवाह किए बिना ऐसी फिल्में बनाते रहेंगे।

Related Articles

Back to top button
Close

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker