शोले फिल्म की पूरी कहानी, शूटिंग स्थल, रोचक तथ्य, कलाकरों का चयन, कलाकारों के नाम आदि - Sholay Movie Story, Shooting Place, Facts, Actors and Actress its |
शोले का फिल्मांकन कर्नाटक राज्य के रामनगर क्षेत्र के चट्टानी इलाकों में ढाई साल की अवधि तक चला था। केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के निर्देशानुसार कई हिंसक दृश्यों को हटाने के बाद फ़िल्म को १९८ मिनट की लंबाई के साथ १५ अगस्त १९७५ को रिलीज़ किया गया था। हालांकि १९९० में मूल २०४ मिनट का मूल संस्करण भी होम मीडिया पर उपलब्ध हो गया था।
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रिलीज़ होने पर पहले तो शोले को समीक्षकों से नकारात्मक प्रतिक्रियाएं और कमजोर व्यावसायिक परिणाम मिले, लेकिन अनुकूल मौखिक प्रचार की सहायता से थोड़े दिन बाद यह बॉक्स ऑफिस पर बड़ी सफलता बनकर उभरी। फ़िल्म ने पूरे भारत में कई सिनेमाघरों में निरंतर प्रदर्शन के लिए रिकॉर्ड तोड़ दिए, और मुंबई के मिनर्वा थिएटर में तो यह पांच साल से अधिक समय तक प्रदर्शित हुई।
शोले फिल्म की कहानी - Sholay Movie Story
रामगढ़ नामक एक छोटे से गाँव में सेवानिवृत पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) दो चोरों को बुलाता है, जिन्हें उसने एक बार गिरफ्तार किया था। ठाकुर को यकीन है कि वे दोनों – जय (अमिताभ बच्चन) तथा वीरू (धर्मेन्द्र) – कुख्यात डकैत गब्बर सिंह (अमजद ख़ान) को पकड़ने में उसकी सहायता कर सकते हैं। गब्बर सिंह को जीवित या मृत पुलिस के हवाले करने पर पचास हज़ार रुपये का नगद इनाम तो था ही, साथ ही ठाकुर ने उन दोनों को गब्बर को जीवित पकड़कर उसके पास लाने पर बीस हज़ार रुपये के अतिरिक्त इनाम की पेशकश भी की।
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गब्बर के तीन साथी रामगढ़ के ग्रामीणों से अनाज लेने आते हैं, पर जय और वीरु की वजह से उन्हें खाली हाथ जाना पड़ता है। गब्बर उनके मात्र दो लोगों से हारने पर बहुत क्रोधित होता है और उन तीनो को मार डालता है। इसके बाद वह होली के दिन गाँव पर हमला करता है और एक लम्बी लड़ाई के बाद जय और वीरु को बंधक बना लेता है।
ठाकुर उन दोनों की मदद करने की स्थिति में होते हुए भी उनकी मदद नहीं करता। जय और वीरु किसी तरह बच निकलते हैं, और ठाकुर की इस अकर्मण्यता से क्षुब्ध होकर गाँव छोड़कर जाने का मन बना लेते हैं। तब ठाकुर उन्हें बताता है कि किस तरह कुछ वर्ष पहले उसने गब्बर को गिरफ्तार किया था पर वो जेल से भाग गया और फिर प्रतिशोध लेने के लिए उसने पहले तो ठाकुर के पूरे परिवार को मार डाला, और फिर ठाकुर के दोनो हाथ काट दिये। इसे छुपाने के लिए ठाकुर शाल ओढ़कर रहता था।
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रामगढ़ में रहते हुये जय और वीरू धीरे धीरे गाँव वालों को पसंद करने लगे थे। जय को ठाकुर की विधवा बहू राधा (जया भादुरी) और वीरु को गाँव में तांगा चलाने वाली बसन्ती (हेमा मालिनी) से प्यार हो जाता है। इसी बीच जय-वीरू और गब्बर के बीच छोटी-मोटी तकरारें होती रहती हैं, और एक दिन उसके आदमी बसन्ती और वीरु को पकड़ कर ले जाते हैं। जय उनको बचाने जाता है, और वे तीनों वहां से बच निकलते हैं। इस लड़ाई में जय को गोली लग जाती है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है।
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जय की मृत्यु से आक्रोशित वीरु अकेले गब्बर का पीछा करता है और उसे पकड़ लेता है। दोनों के बीच हाथापाई होती है, जिसमें वीरू गब्बर को मारने ही वाला होता है कि ठाकुर वहां आ जाता है और गब्बर को जीवित उसके हवाले करने का जय का वायदा याद दिलाता है। वीरु गब्बर को ठाकुर को सौंप देता है, जो अपने नुकीले जूतों से गब्बर के हाथ कुचल देता है और फिर उसे पुलिस के हवाले कर देता है। वीरू अकेला गाँव छोड़कर रेलवे स्टेशन के लिए निकल जाता है, जहाँ बसंती उसका इंतज़ार कर रही होती है। राधा एक बार फिर अकेली ही रह जाती है।
शोले फिल्म के कलाकारों का चुनाव
शोले के निर्माताओं ने शुरुआत में गब्बर सिंह की भूमिका हेतु डैनी डेन्जोंगपा को चुना था, लेकिन वे इस किरदार हेतु तैयार नहीं हुए, क्योंकि वह पहले ही फिरोज खान की धर्मात्मा (1975) में काम करने के लिए हामी भर चुके थे, जिसका फिल्मांकन समय भी शोले के समान ही था। निर्माताओं की दूसरी पसंद अमजद ख़ान थे। वे इस किरदार को निभाने के लिए तैयार हो गए और अभिशप्त चम्बल नामक एक पुस्तक पढ़कर इस चरित्र की तैयारी करने लगे। चम्बल के डकैतों के शोषण के बारे में बताती यह पुस्तक उनकी साथी कलाकार जया भादुरी के पिता तरुण कुमार भादुरी ने लिखी थी। संजीव कुमार भी गब्बर सिंह की भूमिका निभाना चाहते थे, लेकिन सलीम-जावेद को लगा कि "उनकी पहले की भूमिकाओं के के कारण दर्शकों में उनके प्रति सहानुभूति थी; गब्बर को पूरी तरह घृणित होना था।"
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सिप्पी चाहते थे कि जय का किरदार शत्रुघन सिन्हा निभाएँ, लेकिन कई अन्य बड़े सितारे इस फिल्म में काम कर रहे थे, और इसलिए सिन्हा ने मना कर दिया। अमिताभ बच्चन उस समय इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे; उन्हें इस किरदार को पाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ा था। सलीम-जावेद ने हालांकि १९७३ में ही शोले के लिए बच्चन के नाम की सिफारिश कर दी थी; क्योंकि जंजीर फिल्म में उनके अभिनय को देखकर ही सलीम-जावेद आश्वस्त हो गए थे कि बच्चन इस फिल्म के लिए सही अभिनेता हैं।
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क्योंकि फ़िल्म के कई सदस्यों ने कथानक पहले ही पढ़ लिया था, कई अभिनेता अलग अलग किरदार निभाने हेतु इच्छुक थे। प्राण को पहले ठाकुर बलदेव सिंह के किरदार के लिए चुना गया, लेकिन सिप्पी को संजीव कुमार इस किरदार हेतु बेहतर लगे। सलीम-जावेद ने भी ठाकुर के चरित्र के लिए दिलीप कुमार से बात की थी, लेकिन उन्होंने उस समय मन कर दिया; दिलीप कुमार ने बाद में माना कि यह उन कुछ फिल्मों में से एक थी जिसे छोड़ने पर उन्हें खेद था। धर्मेन्द्र को भी ठाकुर के किरदार में रुचि थी, लेकिन जब उन्हें सिप्पी ने बताया कि यदि वे ठाकुर बने तो संजीव कुमार को वीरू का किरदार दे दिया जायेगा और फिर हेमा मालिनी के साथ उनकी जोड़ी बनेगी।
फिल्म के निर्माण के दौरान चार मुख्य किरदारों के कारण इसके निर्माण में काफी समय लग गया। इसका फिल्मांकन शुरू होने से चार महीने पूर्व ही अमिताभ ने जया से शादी कर ली। जया के माँ बनने के कारण इस फिल्म के निर्माण में और देरी हुई और इस फिल्म के प्रदर्शन के दौरान ही अभिषेक बच्चन का जन्म हुआ था। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी के प्रेमालाप वाले दृश्यों के दौरान भी धर्मेन्द्र पूरी मेहनत पर पानी फेर देते थे, और इस कारण एक ही दृश्य के लिए कई बार मेहनत करनी पड़ रही थी। इस फिल्म के प्रदर्शित होने के पाँच वर्ष बाद इन दोनों ने भी शादी कर ली।
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फिल्मांकन ३ अक्टूबर १९७३ को शुरू हुआ, जिसमें बच्चन और भादुरी का एक दृश्य फिल्माया गया। फिल्म का निर्माण अपने समय के लिए भव्य था; अक्सर कलाकारों के लिए पार्टियों और भोजों का आयोजन होता रहता था, और इस कारण इसका बजट तो बढ़ा ही, साथी ही इसे पूरा करने में ढाई साल लग गए। इसकी उच्च लागत का एक कारण यह भी था कि सिप्पी ने अपना वांछित प्रभाव प्राप्त करने के लिए एक बार फिल्माए जा चुके दृश्यों को कई बार दोबारा फिल्माया। गीत "ये दोस्ती" के ५ मिनट के गीत अनुक्रम को शूट करने में २१ दिन लग गए, दो छोटे दृश्य जिसमें राधा दीपक जलाती है, प्रकाश की समस्याओं के कारण २० दिनों में फिल्माए जा सके, और एक दृश्य, जिसमें गब्बर इमाम के बेटे की हत्या करता है, १९ दिनों में जाकर शूट हो पाया। ट्रेन में चोरी का दृश्य, जिसे मुंबई-पुणे रेलमार्ग पर पनवेल के पास फिल्माया गया था, ७ सप्ताह से भी अधिक समय में पूरा हो पाया।
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शोले के अधकतर हिस्सों को कर्नाटक के बंगलौर नगर के पास स्थित एक छोटे से कस्बे रामनगर के चट्टानी इलाकों में फिल्माया गया था। फिल्म के सेटों तक सुविधाजनक पहुंच सुनिश्चित के लिए निर्माताओं को बैंगलोर राजमार्ग से रामनगर तक एक सड़क बनानी पड़ी थी। कला निर्देशक राम येदेकर द्वारा इस स्थल के पास ही एक पूरा कृत्रिम नगर बनाया गया था। ऑन-लोकेशन सेट की प्राकृतिक प्रकाश व्यवस्था से मेल खाने के लिए, मुंबई के राजकमल स्टूडियो के पास भी एक जेल का सेट बनाया गया था। बाद में थोड़े समय के लिए रामनगर के एक हिस्से को फिल्म के निर्देशक के सम्मान में "सिप्पी नगर" का नाम भी दिया गया था। २०१० तक, "शोले चट्टानों" (जहां फिल्म की शूटिंग की गई थी) की एक यात्रा भी रामनगर आने वाले पर्यटकों के लिए उपलब्ध थी।
शोले फिल्म - रोचक तथ्य
वास्तव में जो फ़िल्म उस समय फिल्मायी गयी थी, उसका अंत बहुत अलग था। मूल कहानी में ठाकुर गब्बर को मार देता है, और इसके अलावा भी कई ऐसे ही दृश्य थे, जो मूल कहानी में अलग थे। गब्बर की मृत्यु का दृश्य, और इसके साथ साथ गब्बर द्वारा इमाम के बेटे की हत्या और ठाकुर के परिवार के नरसंहार वाले सभी दृश्यों को भारतीय सेंसर बोर्ड ने हटा दिया था। सेंसर बोर्ड को इस बात की चिंता थी कि कहीं इस तरह के हिंसात्मक दृश्यों को देखने से लोगों पर बुरा प्रभाव न पड़ जाये और लोग कानून की परवाह न कर अन्य लोगों से बदला लेने के लिए उन्हें इसी तरह मारने न लगें। हालांकि सिप्पी ने इस दृश्य को फिल्म का हिस्सा बनाए रखने के लिए काफी लड़ाई लड़ी, पर बाद में इस दृश्य को सेंसर बोर्ड के निर्देशानुसार फिर से शूट किया गया, जिसमें ठाकुर के गब्बर को मारने से कुछ ही समय पहले पुलिस आ जाती है।
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इसके सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने से लेकर १५ सालों तक लोगों को सेंसर बोर्ड द्वारा निर्देशित दृश्य वाला फिल्म ही देखने को मिला था। १९९० में इसका बिना सेंसर किया हुआ ब्रिटिश संस्करण वीएचएस में प्रदर्शित हुआ। इसके बाद एरोस एंटरटेनमेंट ने इसके दो अलग डीवीडी संस्करण जारी किए; पहला, जिसमें बिना सेंसर की हुई २०४ मिनट की मूल फ़िल्म थी, और दूसरा, जिसमें सेंसर बोर्ड द्वारा स्वीकृत १९८ मिनट वाली फिल्म थी।
- इसी वर्ष (१९७५) धर्मेन्द्र तथा अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनीत फिल्म चुपके चुपके भी रिलीज़ हुई थी जो आगे चलकर कई भावी फिल्मों के लिए मील का पत्थर साबित हुई।
- फिल्म के लिए एक कव्वाली भी रिकॉर्ड की गयी थी जो फिल्म की अवधि बढ़ने के कारण शामिल नहीं की गयी।
- शोले को कई "सर्वश्रेष्ठ फिल्म" सम्मान प्राप्त हुए हैं। इसे १९९९ में बीबीसी इंडिया द्वारा "सहस्त्राब्द की फिल्म" घोषित किया गया था।
- २००२ में ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट की १० सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्मों की सूची के शीर्ष पर स्थान प्राप्त हुआ, और २००४ में स्काई डिजिटल के एक सर्वेक्षण में दस लाख ब्रिटिश भारतीयों के मत से इसे सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म का दर्जा दिया गया।
- २०१० की टाइम मैगज़ीन की "बेस्ट ऑफ बॉलीवुड" सूची में यह फ़िल्म शामिल थी, और २०१३ की सीएनएन-आईबीएन की "१०० महानतम भारतीय फिल्मों" की सूची में भी इसे शामिल किया गया था।
फिल्म के कुछ दृश्यों और संवादों ने भारत में काफी प्रतिष्ठा अर्जित की, जैसे कि गब्बर के संवाद, जैसे "कितने आदमी थे", "जो डर गया, समझो मर गया", "होली कब है", "पचास पचास कोश दूर जब कोई बच्चा रोता है तो माँ कहती है चुप हो जा नहीं तो गब्बर आ जायेगा" और "बहत याराना लागता है" इत्यादि तो अति प्रसिद्ध हुए। ये और फ़िल्म के अन्य लोकप्रिय संवाद लोगों की दैनिक स्थानीय भाषा का हिस्सा बन गए थे। फिल्म के पात्रों और संवादों को लोकप्रिय संस्कृति में संदर्भित और पैरोडी किया जाना जारी है।
गब्बर सिंह, फ़िल्म का दुखद खलनायक, हिंदी फिल्मों में एक ऐसा युग बनकर उभरा, जो कि "उन खलनायकों के युग के रूप में प्रतीत होता है", जो कहानी के संदर्भ को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसे शान (१९८०) का शाकाल (कुलभूषण खरबंदा द्वारा अभिनीत), मिस्टर इंडिया (१९८७) का मोगम्बो (अमरीश पुरी) और त्रिदेव (१९८९) का भुजंग (अमरीश पुरी)। फिल्मफेयर द्वारा २०१३ में गब्बर सिंह को भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे प्रतिष्ठित खलनायक के तौर पर नामित किया गया था, और फ़िल्म के चारों अभिनेता "८० आइकॉनिक प्रदर्शन" की २०१० की सूची में शामिल किये गए थे।
शोले फिल्म की कमाई
शोले फ़िल्म १५ अगस्त १९७५ को भारत के स्वतन्त्रता दिवस के मौके पर मुंबई में रिलीज़ हुई। नकारात्मक समीक्षा और प्रभावी प्रचार की कमी के कारण, शुरु के दो सप्ताह तक यह फिल्म कुछ खास नहीं चली, हालांकि सकारात्मक मौखिक प्रचार के चलते तीसरे सप्ताह से इसके दर्शक बढ़ने लगे। शुरुआती हफ़्तों में फिल्म की धीमी कमाई अवधि के दौरान, निर्देशक और लेखक ने फिल्म के कुछ दृश्यों को फिर से फिल्माने पर विचार किया ताकि अमिताभ बच्चन का चरित्र मर न सके। हालांकि जैसे ही फिल्म ने रफ्तार पकड़ी, तो उन्होंने इस विचार को त्याग दिया।
धीरे धीरे फिल्म के संवाद प्रसिद्ध होने लगे, और इससे यह रातो रात सनसनी बन गयी। इसके बाद ११ अक्टूबर १९७५ को इसे मुंबई के बाहर अन्य क्षेत्रों में, विशेषकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बंगाल तथा हैदराबाद में रिलीज़ किया गया।
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शोले १९७५ की सर्वाधिक कमाई करने वाली फ़िल्म बनी, और एक फिल्म रैंकिंग वेबसाइट, बॉक्स ऑफिस इंडिया ने इसे कमाई के आधार पर "आल टाइम ब्लॉकबस्टर" का दर्जा दिया है। इस फ़िल्म ने भारत में ६० स्वर्ण जयंतियों तक प्रदर्शन का कीर्तिमान भी बनाया। साथ ही यह फ़िल्म भारतीय फ़िल्मों के इतिहास में ऐसी पहली फ़िल्म बनी, जिसने सौ से भी ज्यादा सिनेमा घरों में रजत जयंती मनाई। मुम्बई के मिनर्वा सिनेमाघर में तो इसे लगातार ५ वर्षों तक प्रदर्शित किया गया। शोले तब तक किसी सिनेमाघर पर सबसे ज्यादा समय तक प्रदर्शित होने वाली भारतीय फिल्म रही, जब तक दिलवाले दुल्हनिया ले जयंगे (१९९५) ने २००१ में २८६ सप्ताह का इसका रिकॉर्ड तोड़ नहीं दिया।
शोले फिल्म के कलाकार
अमिताभ बच्चन - जय
धर्मेन्द्र - वीरू
संजीव कुमार - ठाकुर बलदेव सिंह (ठाकुर साहब)
हेमा मालिनी - बसंती
अमिताभ बच्चन - जय (जयदेव)
जाया भादुरी - राधा
अमज़द ख़ान - गब्बर सिंह
ए के हंगल - इमाम साहब/रहीम चाचा
सचिन - अहमद, इमाम का बेटा
सत्येन्द्र कपूर - रामलाल
इफ़्तेख़ार - नर्मलाजी, राधा के पिता
लीला मिश्रा - मौसी
विकास आनंद - जय और वीरू को लाने नियुक्त जेलर
पी जयराज - पुलिस कमिश्नर
असरानी - जेलर
राज किशोर - कैदी
मैक मोहन - साँभा
विजू खोटे - कालिया
केष्टो मुखर्जी - हरिराम
हबीब - हीरा
शरद कुमार - निन्नी
मास्टर अलंकार - दीपक
गीता सिद्धार्थ - दीपक की माँ (अतिथि पात्र)
ओम शिवपुरी - इंस्पेक्टर साहब (अतिथि पात्र)
जगदीप - सूरमा भोपाली (अतिथि पात्र)
हेलन - बंजारा नर्तकी (अतिथि पात्र, 'महबूबा महबूबा' गाने में)
जलाल आग़ा -बंजारा गायक (अतिथि पात्र, 'महबूबा महबूबा' गाने में)